शिव जी के समान श्री दादाजी महाराज भी सनातन हैं, आदी हैं । श्री दादाजी धूनी वालों की परंपरा मे भोलेनाथ की तरह ही श्री बड़े दादाजी महाराज के उद्गम का भी कोई प्राकट्य नहीं है।
करीब १९ वी सदी के प्रारंभ में काबुल में एक पश्तो संत हुआ करते थे, श्री गौरी शंकरजी महाराज, जो शिवजी के बहुत बड़े भक्त थे। उनका रूप बहुत विचित्र था, बड़े बड़े कान, बड़ा सा चेहरा एवं तेजस्वी रूप था उनका और स्वयं कद मे भी बहुत लम्बे थे। शिवजी के दर्शन को व्याकुल, श्री गौरी शंकरजी विभिन्न आश्रम मे कई साधु संत के पास गयें । एक दिन किसी साधु ने उनसे कहा कि ये माना जाता है ‘ नर्मदा का कंकर सभी शंकर ‘ (शिवजी नर्मदा के किनारे मिलेंगे) और तभी वह अपनी युवा अवस्था मे ही अफ़ग़ानिस्तान से नर्मदा जी की ओर शिवजी की खोज मे निकल पड़े | वहाँ पहुँच कर उन्हे पता चला कि भोले नाथ तो नर्मदा के किसी भी तट पर मिल सकते हैं और तब से ही उनकी नर्मदाजी की परिक्रमा प्रारम्भ हो गयी |
वह साधुओं की एक जमात से जुड़ गए और प्रभावशाली एवं वेदांती होने के कारण कुछ ही समय में वह उस जमात के महंत बन गये । परिक्रमा करते करते उस जमात से और भी साधु जुड़ गये और जमात की संख्या करीब १५० हो गयी ।
जमात अपना सारा सामान ४० – ५० घोड़ों पर लाद कर नर्मदाजी की एक परिक्रमा १२ साल में पूरी किया करते थे । ऐसी ३ परिक्रमाये पूर्ण होने के पश्चात भी गौरी शंकर जी महाराज को भोलेनाथ के दर्शन ना होने पर वह मायूस हो गये और उन्होने नर्मदाजी में डूब कर अपने प्राण त्याग ने की बात मन में ठान ली। उस समय उनकी जमात साईखेड़ा के पास श्री श्री संघु में थी । प्रतिदिन प्रातःकाल वह ४ बजे स्नान करने जाया करते थे किन्तु उस दिन वह ३:३० बजे नर्मदाजी की ओर चल पढ़े । जैसे ही उन्होंने अपने चरण नर्मदाजी में रखे पीछे से एक ३ – ४ साल की बालिका ने उनकी छोटी उंगली पकड़ ली और कहा ‘ क्यों? डूबने जा रहा है?, मरने जा रहा है? ‘ । श्री गौरी शंकरजी अच्चम्भे में पड़ गये कि उनकी जल समाधि के विषय में किसी को ज्ञात नहीं था तो फिर इस कन्या को कैसे पता चला । इतने में कन्या ने उनकी कलाई पकड़ कर फिर से कहा ‘अच्छा माने गा नहीं , मरना चाहता है, डूबना चाहता है ‘ , उन्होने पूछा ‘ तुम कौन ?‘ और जवाब आया ‘मैं नर्मदा ‘ । श्री गौरी शंकरजी बोले ‘मे नहीं मानता ‘ और अपना हाथ छुड़ा कर आगे बढ़ गये । उस कन्या ने एक बार फिर से उनकी कलाई पकड़ ली किन्तु इस बार यह अधिक बल के साथ थी और उसका हाथ एक युवा वयस्क की भांति था। अविश्वसनीय गौरी शंकरजी ने फिर से उस लड़की से पूछा कि वह कौन है और वही उत्तर मिलने पर वह बोले ‘ मै नहीं मानता, आप अपना असली रूप दिखाएं ‘। नर्मदाजी ने उन्हे अपने दिव्य रूप में साक्षात दर्शन दिए और कहा ‘देख यह जो तू करने जा रहा है यह कायरों का काम है। तू भूल कर रहा है। तेरी जमात में केशव नाम (श्री बड़े दादाजी) का जो युवा है वह ही साक्षात शिवजी हैं ‘। गौरी शंकर जी तुरंत ही अपनी जमात की ओर लौट गए।
रास्ते में उन्हें स्मरण हुआ कि कैसे केशव प्रातःकाल जमात के प्रस्थान करने से पूर्व अकेले सबके लिए हलवा मालपुआ और खीर बनाता है। कभी घी की कमी पड़ने पर वह नर्मदाजी के जल से उतना ही स्वादिष्ट मालपुआ और हलवा बनता जैसे घी में बना हुआ हो, और बाद मे जब जमात के पास पर्याप्त घी जमा हो जाता तो वह घी नर्मदा जी में वापस डाल देता | श्री गौरी शंकरजी को ज्ञात था कि केशव में कुछ सिद्धियां हैं किन्तु वह साक्षात महादेव हो सकते हैं, यह उनकी कल्पना से परे था ।
इसी सोच विचार मे वह अपने डेरे पहुंचे और सीधा भण्डार में गये जहां केशव उनकी तरफ पीठ किए बर्तन धो रहा था । पुकारने पर जब केशव ने अपना मूह मोड़ा तो श्री गौरी शंकरजी को उनमें शिवजी का रूप दिखाई दिया | वह बार बार अपनी आँख मल कर देखते, फिर भी उन्हें शिवजी ही नज़र आते | अब भी उन्हे पूर्ण रूप से विश्वास नहीं हुआ तो उन्होने नर्मदा मैया से प्रार्थना करी कि अब वह ही इनका भ्रम दूर करें और जिस प्रकार मैया ने अपने पूर्ण रूप के दर्शन दिए उस ही प्रकार वह भोलेनाथ के भी दर्शन करायें। तुरंत नर्मदा मैया प्रकट हुई और बोली ‘अच्छा, तुझको विश्वास नहीं होता है, छू कर देख ले‘। श्री गौरी शंकरजी आगे बढ़े और जैसे ही केशवजी के चरण स्पर्श किये उन्हे केशवजी ने पद्मासन मुद्रा मे साक्षात शिव रूप मे दर्शन दिये और कहा कि तुमने हमारे दर्शन कर लिये तो अब तुम अपनी जमात को ले कर आगे जाओ और कुछ देर तक किसी को इस बारे में ज्ञात ना हो । यह कह कर वह जंगल की ओर प्रस्थान कर गये ।
श्री गौरी शंकरजी अपनी जमात को ले कर कुछ दूर कोकसर गये जहाँ उन्होने केशवजी (दादाजी) का रहस्य सबको बताया और चूँकि उनको अपनी जीवन भर की तपस्या का फल प्राप्त हो गया था, उन्होंने समाधि ले ली |
कुछ समय पश्चात श्री दादाजी महाराज होशंगाबाद मे दिगंबर रूप मे रामलाल दादा के नाम से पाए गये, जहाँ उन्होने कई चमत्कार दिखाए | वे वहाँ तीन वर्ष तक रहे फिर एक दिन कुएँ मे गिरने के कारण उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।
कुछ ही दिन बाद वे फिर से सोहागपुर के इम्लिया जंगल में दिगंबर रूप मे धूनी रमाए एक वृक्ष के नीचे बैठे पाए गए | गाँव वालो के आग्रह पर वे उनके साथ नर्सिंगपुर रवाना हो गये जो कि नर्मदा तट से कुछ १०-१२ किलोमीटर पर है | वहाँ भी उन्होंने अपनी अद्भुत लीलाओं का आनन्द दिया और कुछ समय पश्चात समाधि ले ली | वह एक बार फिर सीसीरी संदूक ग्राम जिले में राम फल दादा के नाम से प्रकट हुए | करीब १९०१ मे वे लोगों के दुख हरने और लोगों को पापों से मुक्त करने के लिए साइंखेड़ा आए जहाँ वे कई वर्ष रुके और उन्होने अनगिनत चमत्कार दिखाए |
साईंखेड़ा में श्री दादाजी महाराज किसी घर की छत पर चढ़े नज़र आये । वहां से वह मिट्टी के टूटे हुए कवेलू नीचे बच्चों को मारते और बच्चे शोर मचा देते ‘ अरे पगला बाबा आ गया, पगला बाबा आ गया ‘ । परन्तु जिस किसी रोगी को उनका कवेलू या कंकड़ पड़ता वह अपने रोग से मुक्त हो जाता। साईखेड़ा के बच्चे दादाजी के आगे पीछे घुमते और उन्हें पगला बाबा कह कर बहुत सताया करते थे। बच्चों को दूर भगाने के लिए दादाजी ने एक डंडा हाथ में रखना शुरू कर दिया, तब से उनको लोग डंडे वाले दादा पुकारने लगे। उनका डंडा जिस किसी पे पड़े, उसका उद्धार हो जाता । वह दिन भर जंगल एवं खेतों में घूमते और गायों को चराते रहते और शाम को एक सूखे आम के पेड़ के खोकले में बैठ जाते थे । एक दिन दादाजी ने उस पेड़ की सूखी लकड़ियों से धूनी रमा ली और तबसे लोग उन्हे धूनीवाले दादाजी भी कह कर पुकारने लगे।
तकरीबन ३० साल तक दादाजी साईंखेड़ा और उसके आस पास के इलाकों मे भ्रमण करते रहे और जहां उनकी इच्छा होती वहीँ विश्राम करते, कभी नर्मदा तट पर, कभी खेतों में, कभी किसी झाड़ के नीचे तो कभी किसी के घर मे । इस दौरान जिसको भी उनकी गाली या डंडा पड़ता उसका कल्याण हो जाता । दादाजी इतने विख्यात हुए कि एक दिन स्वतंत्रता सेनानी मदन मोहन मालवीय पंडित जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गाँधी को लेकर उनके दर्शन के लिए आये। पहले गांधीजी ने प्रणाम किया फिर जब पंडित नेहरू प्रणाम करने लगे तब दादाजी, जो सदैव रौद्र रूप मे रहते थे, पंडित नेहरू को डंडा मारेऔर बोलें ‘ यह मोड़ा लायक है, याहै स्वराज दी है ‘ और उन्हे अपना डंडा दे दिया।
सन १९७७ में इंदिरा गाँधी जब २४ अकबर रोड ए.ऑय.सी.सी. हेड क्वार्टर में रहतीं थी तब श्री छोटे सरकारजी उन्हें दर्शन देने गये एवं श्री इंदौर सरकारजी द्वारा दिया गया मोगरे का गजरा उनकी कलाई में बांधते हुए इंदिरा जी को श्री इंदौर सरकार का सन्देश दिया कि ‘ आप फिर से प्रधानमंत्री बनेंगी’। उसी समय श्री छोटे सरकारजी ने उन्हें स्मरण कराया कि उनके पिताजी पंडित जवाहरलाल नेहरू जी को श्री बड़े दादाजी महाराज ने साई खेड़ा में डंडा मारा था एवं वही डंडा उन्हें दे दिया था। इंदिरा जी ने इस बात को स्वीकार किया और श्री छोटे सरकारजी को अपने पूजा घर में ले जाकर मंदिर में स्थापित वही डंडा दिखलाया और बतलाया कि उनके पिताजी पंडित नेहरू उस डंडे को बगल में दबाए सदैव ही अपने साथ रखा करते थे। कुछ महीने पश्चात ही इंदिरा जी चिकमगलूर में पूर्ण बहुमत से कांग्रेस को जीता कर एक बार फिर भारत की प्रधानमंत्री बनीं।
१९२९ में, दादाजी साईखेड़ा से पधारे और छीपानेर, बागली, उज्जैन, इंदौर, नवघाट खेड़ी की यात्रा करते हुए खंडवा में आगमन किया।
बागली मे भोपाल नवाब हमीदुल्लाह खान की धर्मपत्नी स्वभाव की बहुत टेड़ी औरत थी। वह अक्सर हिन्दू महापुरुषों एवं संतो को सताती एवं परखती थी । जब उसको पता चला कि नर्मदा तट पर एक साधुओं की टोली आयी है तो उसने दादाजी को आजमाने के लिए एक तस्तरी में मॉस के टुकड़े ढक कर अपने नौकर के हाथ दादाजी के लिए भेजे ।
जब दादाजी ने उस नौकर को आते देखा तो बोले ‘ अच्छा हमको आजमानेआया है, बेगम ने भेजा है, नवाबन ने भेजा है,और उन्होने नवाबन को खूब गाली दी । दादाजी का रौद्र रूप देख कर वह नौकर डर गया और पीछे हटने लगा, दादाजी उसपे चिल्लाये कि थाली तो देते जा और अपने डंडे को थाली के नीचे मार के थाली का सारा सामान नीचे गिरा दिया । अचम्भे की बात यह कि गिरे हुए मॉस के टुकड़े गुलाब के फूलों में परिवर्तित हो चुके थे। उस नौकर ने डरते हुए एक फूल नीचे से उठाया और शीघ्रता से अपनी मालकिन के पास जाकर उसे सारा किस्सा सुनाया और वह फूल दिखाया । उस औरत ने विचार किया कि चूँकि उसका नौकर हिन्दू है तो उसने मांस हटा कर थाल में फूल रख दिए होंगे। उसने फिर से एक मांस की थाल तैयार करी और दादाजी के पास स्वयं गयी । दादाजी ने उसको देखते ही गुस्से में गालियां दी और पास बुलाया । दादाजी ने उसका हाथ पकड़ लिया और ‘अच्छा मोड़ी हमको आज़माने आयी है, हमको आज़मानी आयी है ‘ कह कर थाल से कपड़ा हटा दिया । इस बार वह मास के टुकड़े मावा मे बदल गए । दादाजी बोले ‘ अच्छा अब भी नहीं समझेगी, ले खा ले, ले खा ले ‘ । जब उस औरत से और नहीं खाया जा रहा था तब दादाजी ने अपने डंडे से उसके मुँह में और टुकड़े ठूस दिए । घबराई हुई नवाबन ने अपने हाथ जोड़ कर दादाजी से क्षमा मांगी और बोली ‘मैने देख लिया है कि आप तो कोई औलिआ हैं दादाजी उसपे गरजे और बोले ‘औलिआ नहीं, औलिआ के बाप हैं हम ! ‘ और उसको हुकुम दिया कि उसने जितने भी साधु संत को बंधी बना रखा है उन्हे तुरंत आज़ाद कर दे ।
अगले दिन वह औरत अपने पति नवाब हमीदुल्लाह खान के साथ अपनी बग्गी में श्री दादाजी महाराज के पास आयी और बड़ी विनम्रतापूर्व श्री दादाजी से आग्रहे किया के वह उनके घर चल कर उनका सम्मान बढ़ाएं । दादाजी ने उनका न्यौता स्वीकार किया और उनके साथ उनकी बग्गी में बैठ गए । बग्गी में विराजमान होते ही दादाजी ने दोनों पति और पत्नी को एवं उनके घोड़े वाले को गाली देकर बग्गी से उतार दिया । जब उन्होंने बग्गी चलाने वाले घोड़ों को भी बग्गी से अलग करने को कहा तो नवाब की पत्नी ने दादाजी से घोड़े बग्गी के साथ भेंट के तौर पर स्वीकार करने का आग्रह किया । दादाजी बोले ‘ नहीं! इन घोड़ों ने भी तेरा अन्न खाया है, हटाओ इन् घोड़ों को ‘ और उन्होंने वह घोड़े भी हटवा दिए । अपने साथ आये हुए भक्तों को दादाजी ने कहा ‘चलो रे मोड़ा हाँको, चलो रे मोड़ा हाँको, चलो रे मोड़ा हाँको । घोड़ों के स्थान पर भक्तों द्वारा खींची हुई इस बग्गी में दादाजी कई दिन यात्रा करते हुए खंडवा पहुंचे। यह रथ वही है जिस में दादाजी ने समाधी ली और आज भी खंडवा दरबार में खड़ा है ।
खंडवा मे ३ दिन रुकने के पश्चात जब श्री दादाजी प्रस्थान करने लगे तो एक पार्वती बाई नाम की सेठानी उनके रथ के सामने आई और बोली ‘मेरे दाल भात का भंडारा खा कर ही जाना पड़ेगा ‘| दादाजी ने उसे तीन बार इंकार किया और कहा कि मुझे जाने दे मुझे बहुत काम है | किन्तु उसने एक न सुनी और दादाजी के रथ के सामने लेट गयी | जब बहुत मनाने पर भी वह नहीं मानी तो दादाजी ने कहा ‘अच्छा भाई हम तो सोते हैं, तेरी तू जान’ |
पार्वती बाई ने रथ के बाहर से ही दादाजी को नैवेद्य लगाया और दादाजी के उठने की प्रतीक्षा करी | जब दादाजी बहुत देर तक नहीं उठे तो सब ने नैवेद्य का पार्षद बाँट कर खा लिया | ऐसा पहले भी कईं बार हो चुका था जब दादाजी महाराज २-३ दिन शयन मे रहेते थे |
दो दिन बीतने पर एक पागल व्यक्ति पुलिस थाने गया और कहा की ये लोग पागल है, इनके दादाजी ने समाधी ले ली है और इनको आभास ही नहीं | जब पुलिस पूछताछ करने दादाजी के रथ के पास गयी तो सब भक्त इस समस्या के समाधान के लिए छोटे दादाजी के पास पहुँचे | लोगों को उनकी तरफ आते देख कर छोटे दादाजी ने तीन बार कहा ‘हाँ हाँ भइया,दादाजी ने समाधि ले ली है, ‘हाँ हाँ भइया,दादाजी ने समाधि ले ली है, ‘हाँ हाँ भइया,दादाजी ने समधी ले ली है’ और लोगों के साथ मिलकर उन्होने दादाजी के शरीर को रथ से निकाला और लकड़ी के बिस्तर पर लिटा दिया |
छोटे दादाजी ने वह ज़मीन जिस पर दादाजी का रथ खड़ा था पैसे देकर खरीद ली और वहाँ दादाजी की समाधि बनाई | वहीं पर उन्होने अखंड धूनी प्रज्वलित करी एवं दरबार की स्थापना करी। उन्होने दरबार के १४ नियम बनाये जैसे आरती, पूजा इत्यादि जिनका आज तक हर दादा दरबार मे निष्ठा पूर्वक पालन किया जाता है |
दादाजी की लीलायें
दादाजी का नाम देश भर मे आग की तरह फैल रहा था | काशी के कुछ साधुओं को ये बात हजम नहीं हुई और उन्होंने दादाजी की परीक्षा लेने का विचार किया, उस समय दादाजी साइंखेड़ा मे थे | दादाजी तो अंतर्यामी थे, उन्हें इस बात का आभास था | साधुओं की टोली साइंखेड़ा पहुँचने से पूर्व ही दादाजी ने अपनी जमात के साधुओं से कहा कि ‘आज हमारी परीक्षा है, तैयार रहो‘ ‘ , और जैसे ही काशी के साधु वहाँ पहुँचे, दादाजी ज़ोर ज़ोर से वेदों की ऐसी भाषा बोलने लगे जो की शायद ही बड़े से बड़े ज्ञानी को भी आती हो | काशी के साधुओं को अपने विचार पर बहुत लज्जा आई और वे दादाजी के चरणों मे गिर पड़े |
इसी तरह ३ व्यक्ति,डॉक्टर,वकील और एक अध्यापक जिन्हे दादाजी की वास्तविकता पर शंका थी ऐसा विचार किया के यदि दादाजी साक्षात् शिव हैं तो उन्हें ज़हर भी हानि नहीं पहुंचा सकता है। वे तीनो दादाजी के पास फूलों की माला, मिठाई और अपने झोले मे ज़हर की बोतल लेकर पहुँच गये | दादाजी ने जैसे ही उन्हे देखा, कहा , ‘मेरे लिए फूल और मिठाई लाए हो, लाओ लाओ मुझे दो‘ ‘ कहकर उनके झोले से ज़हर की बोतल निकाली और पी गये | यह देखकर तीनो व्यक्तिअचंभित रह गये और अपनी भूल के लिए क्षमा माँग कर वहाँ से चले गये |
दादाजी बेल वृक्ष के नीचे धूनी रमाए बैठा करते थे | वहीं पर एक औरत ‘ जीजा बाई ‘ शिव जी की बहुत बड़ी भक्त थी | प्रति दिन प्रातः काल एवं संध्या के समय वह निकट के शिव मंदिर मे पूजा के लिए जाया करती थी | एक दिन जब उसने मंदिर का द्वार खोला तो शिव जी के स्थान पर दादाजी को देखा | अचंभे से उसने जब उस तरफ देखा जहाँ दादाजी विराजमान होते थे तो वहाँ दादाजी के स्थान पर उसे शिव जी दिखाई दिए | इस प्रकार श्री दादाजी ने और भी भक्तों को अपने शिव रूप का दर्शन कराया।
दादाजी के पास लोग आते तो अपनी इच्छा से थे परंतु जाते दादाजी की अनुमति से | सलिग्रम पटेल नाम का एक व्यक्ति दादाजी के दर्शन के लिए आया | १७-१८ दिन हो गये पर उसे जाने की अनुमति नहीं हुई | एक रात दादाजी अपनी टोली के साथ धूनी रमाए बैठे थे जबअचानक दादाजी ने सलिग्रम को नर्मदा से जल लाकर धूनी मे डालने को कहा | उसके ऐसा करने के पश्चात दादाजी उसे गुस्सा करने लगे और गाली देकर कहा ‘ कब से यहाँ पड़ा है, जा घर जा ‘| सलिग्रम को कुछ समझ नही आया और अपना समान लेकर वहाँ से चल पड़ा | रात बहुत हो गयी थी, जाने का कोई साधन नही मिला, किंतु दादाजी की आज्ञा अनुसार जैसे – तैसे जब वो अपने गाँव पहुँचा तो देखकर हैरान रह गया कि उसका पूरा गाँव आग से जल कर राख हो चुका था, केवल उसी का मकान ज्यों का त्यों था | पूछने पर पता चला कि जिस समय उसका मकान छोड़ कर हर जगह आग लगी थी ठीक उसी समय दादाजी उससे धूनी मे जल डलवा रहे थे |
साइंखेड़ा मे दादाजी ने ऐसी बहुत सी लीलाएँ रची | बड़े बड़े साधु, संत भी दादाजी के दर्शन के लिए आया करते थे |
दादाजी को बच्चों से बहुत प्रेम था | एक बार एक बालक रात को सड़क की लाइट के नीचे बैठ कर अपनी पढ़ाई कर रहा था कि एक हवलदार ने उसे पकड़ कर अंदर बंद कर दिया | जब दादाजी को यह पता लगा तो वह बहुत नाराज़ हुए और वहाँ की सारी सड़क की बत्तियों को अपने डंडे से तोड़ दिया | हवलदार ने उन्हे भी उस बच्चे के साथ अंदर बंद कर दिया | बंद करके जब वह बाहर आया तो देखा कि दादाजी तो अपना डंडा लिए सड़क पर खड़े उसकी ओर मुस्कुरा रहें हैं, आश्चर्यचकित हो कर वो अंदर देखने गया तो दादाजी बच्चे के साथ अंदर बंद दिखे, फिर से वो बाहर आया तो दादाजी बाहर दिखे | उसने कान पकड़ लिए और दादाजी से माफी माँग कर बच्चे को छोड़ दिया |
साइंखेड़ा मे एक औरत दादाजी के पास अपना दुख लेकर आई | वो बहुत ग़रीब थी इसीलिए अपनी जवान बेटी की शादी नही कर पा रही थी | दादाजी ने उससे कहा वह उसके घर अगले दिन सुबह मे आएँगे | अगले दिन प्रातः काल दादाजी उस औरत के घर पहुँच गये | जब उस औरत ने दादाजी को प्रणाम किया, ‘बाजू हट, मुझे टट्टी करनी है ‘ कहकर दादाजी उसकी रसोई मे गये और उसके चूल्हे पर बैठ कर टट्टी कर दी | उसके बाद उन्होने उसको बोला कि इसे राख से ढक दे |
जब उसका पति घर आया तो बहुत नाराज़ हुआ और बोला ‘तेरे गुरु को यही जगह मिली थी टट्टी करने के लिए ‘ | उसने अपनी औरत से कहा ‘ इसे फेंकऔर चूल्हा साफ कर ‘ | जब उस औरत ने राख से ढकी टट्टी को उठाया तो उसे वह भारी लगी और जब फैंकने लगी तो देखा टट्टी सोने मे बदल गयी थी | उन दोनो ने उसे धोया और एक प्लेट मे डाल कर दादाजी के पास गये | दादाजी ने उन्हे आता देख दूर से ही कहा ‘ मुझे क्यों दिखाती है, जा जाकर अपनी बेटी की शादी कर ‘| जब वे दोनो दादाजी के करीब पहुँचे तो दादाजी ने उन्हे गुस्सा करते हुए कहा ‘ तुम्हे समझ नही आता,ये मैने तुम्हारी बेटी की शादी के लिए किया है ‘ | उन दोनो ने उस सोने के एक टुकड़े से बेटी की शादी कर दी और बाकी के सोने से गहने बनवा लिए | जिस लड़की की शादी हुई थी उसकी पुश्तों के पास आज भी उस सोने के बनाए गहने है |
ऐसे कईं किस्से हैं जहाँ दादाजी ने अपने भक्तों के कष्ट दूर किये हैं। | दादाजी एक ऐसे महान संत थे जिन्हे जन कल्याण के लिए कभी वेदों, शस्त्रों एवं मंत्रों की आवश्यकता नहीं पड़ी | लोगों का कल्याण करने का उनका एक अद्भुत ढंग था | वे भक्तों को गाली देते, डंडा मारते और उनके कष्ट हरते थे | उनके डंडे की मार खाने के लिए भक्तों की भीड़ लगी रहती थी परंतु कुछ ही भाग्यशालियों को ये सौभाग्य मिलता था | ऐसे थे हमारे प्यारे श्री दादाजी धूनीवाले | जय श्री दादाजी की|